श्रेष्ठ पुरुष कैसा होता है, उसके लक्षण क्या है

भगवद गीता में श्री कृष्ण ने इस तरह के व्यक्ति को स्थितप्रग कहा है। स्थितप्रज्ञ अपनी कामनाओं को त्याग देता है वह सुख दुख से परे रहता है। स्थ...

भगवद गीता में श्री कृष्ण ने इस तरह के व्यक्ति को स्थितप्रग कहा है। स्थितप्रज्ञ अपनी कामनाओं को त्याग देता है वह सुख दुख से परे रहता है। स्थितप्रज्ञ को न तो सुख की वर्षा भिगो सकती है और न ही दुख की अग्नि जला सकती है। स्थितप्रज्ञ वह मुनि है जो सुख और दुख में समान भाव रखता है और कोई उसका यह संतुलन तोड़ भी नही सकता।

श्रेष्ठ पुरुष कभी बिशाध में डूबा नहीं करते। श्रेष्ठ ज्ञानी पुरुष न तो जाने वाले का शोक करते है न ही उनका जो नही गए। न तो अगत के लिए शोक करते है और न तो विगत के लिए। यानी ज्ञानी श्रेष्ठ पुरुष शोक न करने योग्य व्यक्ति के लिए शोक नहीं करते।

ज्ञानी पुरुष को न तो जय का मोह होता है और न तो पराजय का भय। वह लाभ और हानि और सुख दुख में समान भाव रखता है। यानी वह ज्ञानी श्रेष्ठ पुरुष इन सब तुच्छ भावो से ऊपर होता है।

वह सिर्फ कर्म करता है। श्रेष पुरुष निष्काम कर्म करता है। अर्जुन श्री कृष्ण से पूछते है की "है केशव किंतु निष्काम कर्म केसे संभव है? फल का ज्ञान ही तो कर्म करवाता है, और अगर दृष्टि कर्म से ही है जाए तो कोई कर्म करेगा ही क्यों?"

श्री कृष्ण कहते है कोई कर्म इसलिए करेगा क्योंकि कर्म के बिना जीवन असंभव है। सामान्य व्यक्ति के पास तो दो ही विकल्प है कुछ करना या कुछ न करना। किंतु उस कर्म करने और न करने के परिणाम व्यक्ति के वश में नहीं होता। कर्म के बिना तो शरीर की यात्रा संभव ही नहीं।"

जब श्रेष्ठ पुरुष के मुंह से शब्द बाहर निकलते है तो मन में तैरते सुख और दुख से बाहर नहीं निकलते बल्कि आत्मा को अथाह गहराई से बाहर निकलते है। वह मोह की भाषा नही बोलता वह निष्काम कर्म की भाषा बोलता है।

वह जब बैठता है तो कछुए के भाती अपने भीतर सिमट कर बैठता है। अर्थात उसकी इंद्रिय अपने वश में होती है। अपनी इंद्रियों को केवल वही अपने वश में कर सकता है जिसका अपना मन अपने वश में हो।

सामान्य पुरुष विषय का ध्यान करता है और विषय का ध्यान उसे आशक्त बना देता है। इस आशक्त या लगाव से काम का जन्म होता है, जब काम की पूर्ति नहीं होती तो क्रोध उत्पन्न होता है। जब क्रोध उत्पन्न होता है तो विषय के प्रति मोह और बढ़ जाता है।
 
जब मोह और बढ़ जाता है तो सोचने की शक्ति भटक जाती है, और जब सोचने को शक्ति भटक जाती है तो बुद्धि का विनाश हो जाता है और जब बुद्धि का विनाश होता है तब मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। जैसे पवन के झोके नाव को भटका देते है वैसे ही कामनाएं बुद्धि को भटका देती है।

इसलिए श्रेष्ठ पुरुष अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखते है न कि वह स्वयं इन्द्रियों के वश में होते है।

जब संसार सोता है तब श्रेष्ठ पुरुष जागता है और जब संसार जागता है तब श्रेष्ठ पुरुष सोता है।

सामान्य पुरुष की हर एक क्षण कुछ पाने या भोगने के मोह में व्यतीत होती है, यही उसकी चेतना का लक्ष्य है। यदि उसे भूख लगी तो उसे भोजन चाहिए, यदि उसे प्यास लगी तो उसे पानी चाहिए, यदि उसे ऋतुओ से अपना बचाव करना हो तो घर चाहिए। सामान्य पुरुष को सोच आत्मनिष्ट होती है। किंतु श्रेष्ठ पुरुष की सोच वस्तुनिष्ठ होती है। वह व्यक्तिगत भूख और व्यक्तिगत तृष्णा के परे देखता है।

सामान्य मनुष्य को ईंधन के लिए लकड़ी चाहिए तो वह वृक्षों को तब तक काटता चला जाता है जब तक वन नष्ट न हो जाए परंतु श्रेष्ठ पुरुष प्रकृति में वनों के महत्व के बारे में सोचता है। प्रकृति के संतुलन के विषय के बारे में सोचता है। वन और ऋतु के संबंध के विषय में सोचता है।

श्रेष्ठ पुरुष की रुचि समस्याओं के साथ साथ उसके समाधान में भी है। और यही बात उसे सामान्य पुरुष से अलग करती है।

सामान्य पुरुष उस नदियों के भाती है जिन्हे व्याकुलता बहा ले जाती है। परंतु उन्हें अपने मार्ग का ज्ञान नहीं होता। वो तो अंधादून बही जाती है क्योंकि वह केवल बहने ही को ही केवल अपना कर्म समझती है। और वो अपना सारा जल सारी उथल पुथल सागर में उड़ेल देती है। किंतु सागर फिर भी अपने तटों की मर्यादा का उलंघन नही करता।

इसी प्रकार सामान्य मनुष्य को तो कामनाओं की नदिया बहा ले जाती है परंतु जब वह श्रेष्ठ पुरुष के पास आती है तो वह उन्हें अपने भीतर समेट लेता है, और अपनी मर्यादा का उलंघन नही करता।

आखें है तो वह अवश्य देखेगी कर्ण है तो वह अवश्य सुनेगे। श्रेष्ठ पुरुष अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करता है उनका दमन नही करता। वह आंखे बंद करके नही जीता।

यानी श्रेष्ठ पुरुष अपनी इन्द्रियों पर अंकुश रखकर उन्हें कर्मोन्मुख करते है और उन्हें कर्म की दिशा दिखाते है। वह अपने विकल्पों को समझता है और अपनी संकल्प सकती का प्रयोग करता है।

यह भी ठीक है को आंखे देखती है लेकिन वह क्या देखे और क्या न देखे उसका निर्णय तो श्रेष्ठ पुरुष स्वयं करता है। वह आखों को देखने की कर्ण को सुनने की खुली छूट नहीं देता। विकल्प के यही मोड़ पर सामान्य पुरुष और ज्ञानी पुरुष के बीच का भेद खुलता है।

जो व्यक्ति केवल अपने विषय केवल अपने विषय में सोचता है वह पापी है, श्रेष्ठ पुरुष इस तरह नहीं सोचते।

कर्म तो अज्ञानी भी करते है किंतु केवल अपने निहित स्वार्थ की दृष्टि से लेकिन ज्ञानी का कर्म तो निस्वार्थ होता है, संसार के संतुलन को स्थिर बनाए रखने के लिए होता है, लोक कल्याण के लिए होता है।

श्रेष्ठ पुरुष द्वेष और आकांक्षाओं से ऊपर उठकर कर्म करता है। वह शीतकाल और ग्रीष्मकाल, सुख और दुख, मान और अपमान में शांत रहता है और संतुलन रखया है।

श्रेष्ठ पुरुष सबके सुख दुख को अपना सुख दुख समझता है।
Name

All,9,Biography,2,Espionage Stories,6,Hindi,4,History,2,Isreal,2,News,4,Operation Orchard,1,Operation Thunderbolt,5,Politics,1,Putin,1,Russia,1,The Kafir,4,
ltr
item
Blog of The Gopal: श्रेष्ठ पुरुष कैसा होता है, उसके लक्षण क्या है
श्रेष्ठ पुरुष कैसा होता है, उसके लक्षण क्या है
Blog of The Gopal
https://blog.thegopal.in/2023/01/Imperturbable-man.html
https://blog.thegopal.in/
https://blog.thegopal.in/
https://blog.thegopal.in/2023/01/Imperturbable-man.html
true
8374248357910120699
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS CONTENT IS PREMIUM Please share to unlock Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy