धर्मात्मा विभीषण महाराज


नमस्ते! आज मैं परम सम्मानीय श्री विभीषण जी के बारे में बात करना चाहता हूँ – वे महान पुरुष जो रावण के छोटे भाई थे और जिन्होंने भगवान श्री राम का पवित्र साथ चुना। कुछ लोग उन्हें गलत कहते हैं, उनकी निंदा करते हैं। लेकिन सुनिए, ये लोग गहरे भ्रम में हैं! श्री विभीषण जी एक श्रेष्ठ और धर्मनिष्ठ आत्मा थे, जिन्होंने उस कठिन समय में धर्म का ध्वज ऊँचा रखा जब चारों ओर अधर्म का अंधेरा छा रहा था। मुझे बहुत पीड़ा होती है जब कुछ अज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग इस महान धर्मात्मा को गलत समझते हैं। वे सत्य और शुभता के प्रतीक थे, और आज मैं पूरे सम्मान के साथ उनके बारे में सच बता रहा हूँ।

श्री विभीषण जी रावण के छोटे भाई थे और राक्षस कुल में उनका जन्म हुआ था। लेकिन रावण की तरह वे न तो अहंकार से भरे थे और न ही क्रूर स्वभाव के। उन्हें सही और गलत का गहरा ज्ञान था, और उनका हृदय शुद्धता से परिपूर्ण था। वे सत्य का पालन करने में कभी नहीं डरते थे, चाहे इसके लिए अपने परिवार के विरुद्ध ही क्यों न खड़ा होना पड़े। यह उनके चरित्र की महानता और दृढ़ता को दर्शाता है! वाल्मीकि रामायण में उनके गुणों की प्रशंसा की गई है – उन्हें धर्म को गहराई से जानने वाला, सत्यवादी और सभी प्राणियों के हित की चिंता करने वाला बताया गया है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्चाई और धर्म का मार्ग कितना भी कठिन हो, उसे छोड़ना नहीं चाहिए।

युद्धकांड (6.20) का यह श्लोक देखिए:  
"सत्यवादी महासत्त्वो धर्मज्ञो रावणानुजः। विभीषणः समुद्रस्य तीरे तस्थौ रघूत्तमम्।"
 
(अनुवाद: सत्य बोलने वाले, महान शक्ति वाले, धर्म को जानने वाले, रावण के छोटे भाई श्री विभीषण जी समुद्र के किनारे रघुश्रेष्ठ के सामने खड़े थे।)  
 
देखिए, उन्हें सत्यवादी और धर्मज्ञ कहा गया है। यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे, बल्कि सत्य और धर्म के जीवंत स्वरूप थे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी अपना मार्ग नहीं छोड़ा।

जब रावण ने माता सीता का हरण किया, तो श्री विभीषण जी ने अपने बड़े भाई को समझाने का पूरा प्रयास किया। उन्होंने प्रेम और विवेक से कहा, “भैया, यह कार्य अनुचित है। माता सीता को भगवान श्री राम को लौटा दीजिए और लंका को विनाश से बचाइए।” लेकिन रावण का अहंकार इतना बढ़ गया था कि उसने उनकी पवित्र सलाह को ठुकरा दिया और उन्हें अपमानित कर अपने दरबार से निकाल दिया।
 
तब श्री विभीषण जी ने क्या किया? वे नन्हें पक्षी की तरह भगवान श्री राम की शरण में गए और विनम्रता से बोले, “हे प्रभु, मैं आपके साथ हूँ, क्योंकि आप सत्य और धर्म के रक्षक हैं।” भगवान श्री राम ने उनके इस साहस और शुद्ध हृदय को देखा, उन्हें अपने हृदय से स्वीकार किया, अपना सखा बनाया और बाद में उन्हें लंका का सम्मानित राजा घोषित किया।
 
भगवान श्री राम ने उन पर पूर्ण विश्वास किया, क्योंकि वे सत्यनिष्ठ, धर्मपरायण और निर्मल हृदय के थे। यह उनके जीवन की महिमा है।

अब कुछ लोग कहते हैं, “उन्होंने अपने परिवार को छोड़ दिया, वे कमजोर थे!” अरे, यह सोच कितनी गलत और संकीर्ण है! रावण ने सबसे पहले धर्म का अपमान किया जब उसने माता सीता का हरण किया। श्री विभीषण जी ने तो केवल उस अधर्म का साथ देने से इनकार किया, जो हर सच्चे मनुष्य का कर्तव्य है। और कमजोर? यह कहना हास्यास्पद है! सबके साथ चलना और चुप रहना सरल होता है, लेकिन अपने बड़े भाई के विरुद्ध सत्य और धर्म के लिए खड़ा होना? यह सच्चा बल और साहस है। जो लोग उनकी निंदा करते हैं, वे धर्म के गहरे अर्थ को समझने में असमर्थ हैं। ये अज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग बस ऊँची-ऊँची बातें करते हैं। यदि ये उस समय वहाँ होते, तो शायद रावण के अहंकार और अधर्म की प्रशंसा करते हुए तालियाँ बजाते। लेकिन श्री विभीषण जी ने ऐसा नहीं किया – उन्होंने धर्म का मार्ग चुना, जो हर किसी के बस की बात नहीं।

अरण्यकांड (3.17) में उनके गुणों का वर्णन है:  
 
"विभीषणः स धर्मात्मा राक्षसानां निवेशने। सदा धर्मे रतो नित्यं न च हिंसति कञ्चन।"  

(अनुवाद: श्री विभीषण जी वह धर्मात्मा थे जो राक्षसों के बीच रहते थे, सदा धर्म में रत रहते थे और किसी को हानि नहीं पहुँचाते थे।)  
 
वे हिंसक राक्षस नहीं थे। उनका स्वभाव शांत, दयालु और धर्म के प्रति पूर्ण समर्पण से भरा था। ऐसे महान और पवित्र पुरुष की निंदा करना कितना अनुचित है?

और युद्धकांड (6.28) में उनकी महिमा और स्पष्ट है:  
 
"स च धर्मं विजानाति रावणस्य सुदुर्मतेः। विभीषणः सत्यसंधो रामस्य शरणं गतः।"
 
(अनुवाद: वे धर्म को जानते थे और रावण की दुष्ट बुद्धि को समझते थे। सत्यनिष्ठ श्री विभीषण जी भगवान श्री राम की शरण में गए।)  
 
उन्होंने रावण की बुराई को पहचाना और भगवान श्री राम का साथ चुना, क्योंकि यह धर्म का पवित्र मार्ग था। यह उनके उत्तम चरित्र और सत्य के प्रति अटल निष्ठा का प्रमाण है।

तो अगली बार कोई श्री विभीषण जी को गलत कहे, उसे प्रेम से समझाओ और रामायण को ध्यान से पढ़ने की सलाह दो। वे एक सच्चे धर्मात्मा और सत्य के उपासक थे, जिन्हें सत्ता, संपत्ति या परिवार से अधिक सत्य और धर्म की चिंता थी। जो लोग उन्हें दोष देते हैं, वे स्वयं सत्य से कोसों दूर हैं और धर्म के गहरे भाव को ग्रहण करने में असमर्थ हैं। श्री विभीषण जी हमारे लिए एक आदर्श हैं – उनका जीवन हमें सिखाता है कि कठिन से कठिन समय में भी धर्म और सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। मुझे उन पर गर्व है कि उन्होंने सही समय पर धर्म का ध्वज थामा और उसे ऊँचा रखा।

वाल्मीकि रामायण में विभीषण का वर्णन विभिन्न स्थानों पर विस्तार से मिलता है। यहाँ उन श्लोकों का हिंदी अनुवाद दिया जा रहा है जो विभीषण का उल्लेख करते हैं, विशेष रूप से सुंदरकांड और युद्धकांड में, जैसा कि मूल संस्कृत श्लोकों में है। मैं इसे संक्षिप्त और क्रमबद्ध रखूँगा, केवल श्लोकों का शुद्ध अनुवाद प्रस्तुत करते हुए:



सुंदरकांड 5.41
"विभीषणस्तु धर्मज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः।  
रामं दृष्ट्वा कृतं कार्यं मेने चित्तेन धीमतः।"  
 
(अर्थ: "विभीषण धर्म के ज्ञाता और सभी शास्त्रों के विशेषज्ञ हैं। राम को देखकर बुद्धिमान पुरुष ने मन में सोचा कि मेरा कार्य पूर्ण हो गया।)


युद्धकांड 6.18
"विभीषणो महाप्राज्ञः सर्वलोकहिते रतः।  
रामस्य चरणौ गृह्य प्रणतोऽभिवादति स्म ह।"  
 
(अर्थ: विभीषण बहुत बुद्धिमान थे और समस्त लोकों के कल्याण के लिए समर्पित थे। 
उसने राम के चरण पकड़ लिए और उन्हें प्रणाम किया।)

युद्धकांड 6.20
"सत्यवादी महासत्त्वो धर्मज्ञो रावणानुजः।  
विभीषणः समुद्रस्य तीरे तस्थौ रघूत्तमम्।"  
 
(अर्थ: वह रावण के छोटे भाई, सत्यनिष्ठ, पराक्रमी और धर्म के ज्ञाता है। विभीषण रघुवंश के श्रेष्ठ क्षत्रियों के साथ समुद्र के तट पर खड़े थे।)

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